भारतीय खेल: राजनीति और भ्रष्टाचार की कैद में

 

भारतीय खेल: राजनीति और भ्रष्टाचार की कैद में


भारत खेलों की धरती है। यहाँ बच्चों की पहली दौड़ घर की गलियों से शुरू होती है और गाँव का पहला खेल मिट्टी के अखाड़े से। हमारे युवाओं में प्रतिभा की कोई कमी नहीं। लेकिन जब वही खिलाड़ी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँचने का सपना देखता है, तो उसे सबसे बड़ी बाधा मैदान में नहीं, बल्कि खेल संघों और उनकी राजनीति में मिलती है।


खेल संघों में राजनीति की पैठ


भारतीय खेलों का सबसे कड़वा सच यह है कि कई खेल संघ खेल से ज़्यादा राजनीति के अखाड़े बन चुके हैं।


अध्यक्ष और पदाधिकारी अक्सर पूर्व राजनेता या उनके करीबी होते हैं।


खिलाड़ियों के चयन से लेकर टूर्नामेंट तक, कई बार फैसले योग्यता पर नहीं बल्कि जान-पहचान और दबाव पर आधारित होते हैं।


पदाधिकारी सालों तक कुर्सी से चिपके रहते हैं, जबकि नए विचार और युवा नेतृत्व दरकिनार कर दिए जाते हैं।



भ्रष्टाचार: खेल संस्कृति का सबसे बड़ा दुश्मन


भारतीय खेलों की तस्वीर में एक और धब्बा है — भ्रष्टाचार।


अनुदान और फंड खिलाड़ियों तक पूरी तरह नहीं पहुँचते।


महंगे उपकरणों की खरीद में घोटाले, ट्रैवल और कैंप बजट में हेराफेरी जैसी शिकायतें आम हैं।


छोटे खिलाड़ियों तक सुविधाएँ पहुँचने से पहले ही फाइलें और खातों में उनका दम घुट जाता है।



इसका असर


योग्य खिलाड़ी निराश होकर खेल छोड़ देते हैं।


प्रतिभा गाँवों और छोटे कस्बों से निकलकर मैदान में आने से पहले ही दम तोड़ देती है।


और अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत, जिसकी आबादी 140 करोड़ है, अब भी पदकों के मामले में छोटे देशों से पीछे खड़ा दिखाई देता है।



बदलाव की ज़रूरत


अगर भारत को सच में खेलों में महाशक्ति बनना है तो सबसे पहले हमें राजनीति और भ्रष्टाचार की सफाई करनी होगी।


खेल संघों में खिलाड़ियों का नेतृत्व ज़रूरी है, न कि नेताओं का कब्ज़ा।


अनुदान और सुविधाओं में पारदर्शिता लाना अनिवार्य है।


पदाधिकारियों के लिए समय सीमा और जवाबदेही तय करनी होगी।


और खिलाड़ियों के लिए स्वतंत्र चयन प्रणाली होनी चाहिए, जहाँ सिर्फ़ प्रतिभा बोले।



निष्कर्ष


भारत को खेलों में पीछे खड़ा करने वाला दुश्मन मैदान में नहीं, बल्कि फेडरेशनों की चारदीवारी में बैठा है।

अगर हमने आज इस राजनीति और भ्रष्टाचार को चुनौती नहीं दी, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें माफ़ नहीं करेंगी।


याद रखिए —

“खेल का मैदान खिलाड़ियों का होना चाहिए, नेताओं का नहीं।”


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